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निम्नलिखितं गद्यांशं पठित्वा सप्तप्रश्नानां उत्तराणि समुचितं विकल्पं चित्वा दत्त–
अस्ति कस्मिंश्चिद्वनोद्देशे मदोत्कटो नाम सिंह: प्रतिवसति स्म। तस्य च अनुचरा अन्य द्वीपिवायसगोमायव: सन्ति। अथ कदाचित् तै: इतस्ततो भ्रमद्भि: सार्थभ्रष्ट: क्रथनको नाम उष्ट्रो दृष्ट:। अथ सिंह आह- ‘‘अहो! अपूर्वमिदं सत्त्वम् । तज्ज्ञायतां किमेतदारण्यकं ग्राम्यं वा’’ इति। तच्छ्रुत्वा वायस आह- ‘‘भो स्वामिन्! ग्राम्योऽयमुष्ट्रनामा जीवविशेषस्तव भोज्य:। तत् व्यापाद्यताम्। सिंह आह- ‘‘नाहं गृहमागतं हन्मि उक्तञ्च।
तद्भय प्रदानं दत्त्वा मत्सकाशमानीयतां येन अस्यागमनकारणं पृच्छामि’’। अथ असौ सर्वैरपि विश्वासस्य अभयप्रदानं दत्त्वा मदोत्कटसकाशमानीत: प्रणम्योपविष्टश्च। ततस्तस्य पृच्छतस्तेनात्मवृत्तान्त: सार्थभ्रंशसमुद्भवो निवेदित:। तत: सिंहेनोक्तम् – ‘‘भो क्रथनक! मा त्वं ग्रामं गत्वा भूयोऽपि भारोदवहनकष्टभागी भूया:। तदत्रैव अरण्ये निर्विशज्रे मरकतसदृशानि शष्पाग्राणि भक्षयन् मया सह सदैव वस’’। सोऽपि तथेत्युक्त्वा तेषां मध्ये विचरन् न कुतोऽपि भयमिति सुखेन आस्ते। तथान्येद्युर्मदोत्कटस्य महागजेन अरण्यचारिणा सह युद्धमभवत् । ततस्तस्य दन्तमुशलप्रहारैव्र्यथा सञ्जाता। व्यथित: कथमपि प्राणैर्न वियुक्त:।
अथ शरीरसामथ्र्यात् न कुत्रचित्पदमपि चलितुं शक्नोति तेऽपि सर्वे काकादयोऽप्रभुत्वेन क्षुधाविष्टा: परं दु:खं भेजु: अथ तान् सिंह: प्राह- ‘‘भो! अन्विष्यतां कुत्रचित् किचित् सत्त्वं येन अहं एतामपि दशां प्राप्तस्तद्धत्वा युष्मद्भोजनं सम्पादयामि’’।
अथ ते चत्वारोऽपि भ्रमितुमारब्धा यावन्न किचित् सत्त्वं पश्यन्ति तावद्वायसशृगालौ परस्परं मन्त्रयत:। शृगाल आह – ‘‘भो वायस! किं प्रभूतभ्रान्तेन, अयमस्माकं प्रभो: क्रथनको विश्वस्तस्तिष्ठति तदेनं हत्वा प्राणयात्रां कुर्म:। वायस आह- ‘‘युक्तमुक्तं भवता, परं स्वामिना तस्य अभयप्रदानं दत्तमास्ते न वध्योऽयम्’’ इति।
अस्ति कस्मिंश्चिद्वनोद्देशे मदोत्कटो नाम सिंह: प्रतिवसति स्म। तस्य च अनुचरा अन्य द्वीपिवायसगोमायव: सन्ति। अथ कदाचित् तै: इतस्ततो भ्रमद्भि: सार्थभ्रष्ट: क्रथनको नाम उष्ट्रो दृष्ट:। अथ सिंह आह- ‘‘अहो! अपूर्वमिदं सत्त्वम् । तज्ज्ञायतां किमेतदारण्यकं ग्राम्यं वा’’ इति। तच्छ्रुत्वा वायस आह- ‘‘भो स्वामिन्! ग्राम्योऽयमुष्ट्रनामा जीवविशेषस्तव भोज्य:। तत् व्यापाद्यताम्। सिंह आह- ‘‘नाहं गृहमागतं हन्मि उक्तञ्च।
तद्भय प्रदानं दत्त्वा मत्सकाशमानीयतां येन अस्यागमनकारणं पृच्छामि’’। अथ असौ सर्वैरपि विश्वासस्य अभयप्रदानं दत्त्वा मदोत्कटसकाशमानीत: प्रणम्योपविष्टश्च। ततस्तस्य पृच्छतस्तेनात्मवृत्तान्त: सार्थभ्रंशसमुद्भवो निवेदित:। तत: सिंहेनोक्तम् – ‘‘भो क्रथनक! मा त्वं ग्रामं गत्वा भूयोऽपि भारोदवहनकष्टभागी भूया:। तदत्रैव अरण्ये निर्विशज्रे मरकतसदृशानि शष्पाग्राणि भक्षयन् मया सह सदैव वस’’। सोऽपि तथेत्युक्त्वा तेषां मध्ये विचरन् न कुतोऽपि भयमिति सुखेन आस्ते। तथान्येद्युर्मदोत्कटस्य महागजेन अरण्यचारिणा सह युद्धमभवत् । ततस्तस्य दन्तमुशलप्रहारैव्र्यथा सञ्जाता। व्यथित: कथमपि प्राणैर्न वियुक्त:।
अथ शरीरसामथ्र्यात् न कुत्रचित्पदमपि चलितुं शक्नोति तेऽपि सर्वे काकादयोऽप्रभुत्वेन क्षुधाविष्टा: परं दु:खं भेजु: अथ तान् सिंह: प्राह- ‘‘भो! अन्विष्यतां कुत्रचित् किचित् सत्त्वं येन अहं एतामपि दशां प्राप्तस्तद्धत्वा युष्मद्भोजनं सम्पादयामि’’।
अथ ते चत्वारोऽपि भ्रमितुमारब्धा यावन्न किचित् सत्त्वं पश्यन्ति तावद्वायसशृगालौ परस्परं मन्त्रयत:। शृगाल आह – ‘‘भो वायस! किं प्रभूतभ्रान्तेन, अयमस्माकं प्रभो: क्रथनको विश्वस्तस्तिष्ठति तदेनं हत्वा प्राणयात्रां कुर्म:। वायस आह- ‘‘युक्तमुक्तं भवता, परं स्वामिना तस्य अभयप्रदानं दत्तमास्ते न वध्योऽयम्’’ इति।
135. वायसशृगालौ अस्मिन् पदे क: समास: ?
1. अव्ययीभाव:
2. बहुव्रीहि:
3. द्वन्द्व:
4. तत्पुरुष:
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Answer – (3)
वायसशृगालौ नामक पद में ‘द्वन्द्व’ समास है। जब ऐसे दो या दो से अधिक पद रखे जाते हैं जो ‘च’ शब्द से जुड़े हुए हो, तो वहाँ पर द्वन्द्व समास होता है। इसका सूत्र चार्थे द्वन्द्व: 2/2/21 है। वायसशृगालौ का समास विग्रह होगा-वायसश्च शृगालश्च · वायसशृगालौ। अव्ययीभाव– ‘अव्ययीभाव’ शब्द का यौगिक अर्थ है जो अव्यय नहीं था, उसका अव्यय हो जाना। इस समास में प्राय: दो पद रहते हैं-इनमें से प्रथम प्राय: अव्यय होता है और दूसरा संज्ञा। दोनों मिलकर अव्यय हो जाते हैं। इसके रूप नहीं चलते हैं। अन्तिम शब्द का नपुंसकलिङ्ग (अव्ययीभावश्च/2/4/18) के एकवचन में जैसा रूप होता है, वही रूप अव्ययीभाव समास का हो जाता है और वही नित्य रहता है। यथा- यथाकामम् · काममनतिक्रम्य इति यथाकामम् (इच्छानुसार)।
तत्पुरुष– तत्पुरुष उस समास को कहते हैं, जिसमें प्रथम शब्द द्वितीय शब्द की विशेषता बताये। इसके दो अर्थ होते हैं- (1) तस्यपुरुष:· तत्पुरुष: (2) स: पुरुष: · तत्पुरुष:। इन दो अर्थों के अनुसार ही तत्पुरुष के दो मुख्य भेद हैं। (1) व्यधिकरण अर्थात् – जिस समास में प्रथम शब्द की विभक्ति और दूसरे शब्द की विभक्ति भिन्न-भिन्न हों (2) समानाधिकरण अर्थात् जिसमें प्रथम शब्द की विभक्ति और दूसरे शब्द की विभक्ति एक ही हो। यथा – राज्ञ: पुरुष: · राजपुरुष: (यहाँ ‘राज्ञ:’ एक प्रकार से पुरुष का विशेषण है) में व्यधिकरण तथा कृष्ण: सर्प: · कृष्णसर्प: (यहाँ ‘कृष्ण’ शब्द ‘सर्प:’ का विशेषण है) समानाधिकरण तत्पुरुष समास है।
वायसशृगालौ नामक पद में ‘द्वन्द्व’ समास है। जब ऐसे दो या दो से अधिक पद रखे जाते हैं जो ‘च’ शब्द से जुड़े हुए हो, तो वहाँ पर द्वन्द्व समास होता है। इसका सूत्र चार्थे द्वन्द्व: 2/2/21 है। वायसशृगालौ का समास विग्रह होगा-वायसश्च शृगालश्च · वायसशृगालौ। अव्ययीभाव– ‘अव्ययीभाव’ शब्द का यौगिक अर्थ है जो अव्यय नहीं था, उसका अव्यय हो जाना। इस समास में प्राय: दो पद रहते हैं-इनमें से प्रथम प्राय: अव्यय होता है और दूसरा संज्ञा। दोनों मिलकर अव्यय हो जाते हैं। इसके रूप नहीं चलते हैं। अन्तिम शब्द का नपुंसकलिङ्ग (अव्ययीभावश्च/2/4/18) के एकवचन में जैसा रूप होता है, वही रूप अव्ययीभाव समास का हो जाता है और वही नित्य रहता है। यथा- यथाकामम् · काममनतिक्रम्य इति यथाकामम् (इच्छानुसार)।
तत्पुरुष– तत्पुरुष उस समास को कहते हैं, जिसमें प्रथम शब्द द्वितीय शब्द की विशेषता बताये। इसके दो अर्थ होते हैं- (1) तस्यपुरुष:· तत्पुरुष: (2) स: पुरुष: · तत्पुरुष:। इन दो अर्थों के अनुसार ही तत्पुरुष के दो मुख्य भेद हैं। (1) व्यधिकरण अर्थात् – जिस समास में प्रथम शब्द की विभक्ति और दूसरे शब्द की विभक्ति भिन्न-भिन्न हों (2) समानाधिकरण अर्थात् जिसमें प्रथम शब्द की विभक्ति और दूसरे शब्द की विभक्ति एक ही हो। यथा – राज्ञ: पुरुष: · राजपुरुष: (यहाँ ‘राज्ञ:’ एक प्रकार से पुरुष का विशेषण है) में व्यधिकरण तथा कृष्ण: सर्प: · कृष्णसर्प: (यहाँ ‘कृष्ण’ शब्द ‘सर्प:’ का विशेषण है) समानाधिकरण तत्पुरुष समास है।