पद्यांश पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
निर्देश: नीचे दिए गए पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के सबसे उपयुक्त उत्तर वाले विकल्प को चुनिए:
जय हो उसकी
जिसने मुझको दो पैर दिए।
अपनों से बढ़कर
जिसने मुझको गैर दिए,
मैं आज घूमता घाटी में
कितने उतार, कितने चढ़ाव,
हर मंजिल के अपने पड़ाव
हर कदम
नए नज्जारों से परिचय करता,
हर ठोकर में
भीतर कुछ छलक छलक पड़ता।
अटकी आशा, भटकी साँस
उस क्षण तो लगती बुरी
बाद में लगता है
समतल राहों में चलने से
क्या पाऊँगा
जो कुछ पाया है
इन्हीं ठोकरों के बूते से।
जय हो उसकी
जिसने मुझको दो पैर दिए।
अपनों से बढ़कर
जिसने मुझको गैर दिए,
मैं आज घूमता घाटी में
कितने उतार, कितने चढ़ाव,
हर मंजिल के अपने पड़ाव
हर कदम
नए नज्जारों से परिचय करता,
हर ठोकर में
भीतर कुछ छलक छलक पड़ता।
अटकी आशा, भटकी साँस
उस क्षण तो लगती बुरी
बाद में लगता है
समतल राहों में चलने से
क्या पाऊँगा
जो कुछ पाया है
इन्हीं ठोकरों के बूते से।
101. ‘जिसने मुझको गैर दिए’ से अभिप्राय है –
1. अपनों से तिरस्कार मिला।
2. परायों को भी अपना बनाया।
3. अपनों को दूर किया।
4. पराएपन का भाव मिला।
Click To Show Answer
Answer – (2)