Part – IV Sanskrit (Language II)
(Official Answer Key)
परीक्षा (Exam) – CTET Paper 2 Elementary Stage (Class VI to VIII)
भाग (Part) – Part – IV Language II Sanskrit (संस्कृत)
परीक्षा आयोजक (Organized) – CBSE
कुल प्रश्न (Number of Question) – 30
परीक्षा तिथि (Exam Date) – 24th December 2021
गद्यांश पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
निम्नलिखितं गद्यांशं पठित्वा नवप्रश्नानां उचितं विकल्पं चित्वा प्रश्नानाम् उत्तराणि दातव्यानि।
पुरा वृत्रासुर: देवान् भृशमपीडयत्। इन्द्रादय: ते देवा: प्रजापतिमुपागच्छन्। तान् समागतान् दृष्ट्वा प्रजापति: आगमनस्य कारणमपृच्छत् । ते प्रत्यवदन् – ‘‘प्रभो! वृत्रासुर: अस्मान् पीडयति। तस्य शक्त्ते: पुरत: वयं स्थातुं न शक्नुम:। अत: भीता: वयमत्रागता:। प्रजापते अभणत् – ‘‘हरि: एव अस्मान् रक्षितुं समर्थ:। तमेव शरणं गच्छाम:।’’ प्रजापति: देवै: साकं वैकुण्ठं गत्वा हरये सर्वमपि वृत्तान्तं न्यवेदयत् । तत् श्रुत्वा हरि: अकथयत् – ‘‘भो: प्रजापति! देवा: महर्षे: दधीचे: अन्तिकं गत्वा तस्मात् अस्थियाचनं कुर्वन्तु। स: नूनमस्थीनि दास्यति। तै: अस्थिभि: वङ्काायुधं घटयत। तेन वृत्रं हन्तु युद्धे असुरान् जेतुं च पारयिष्यथ।’’ देवा: दधीचे: आश्रमं प्राविशन्। तत्र ते अनेकै: ऋषिभि: परिवृतमग्निमिव प्रभया देदीप्यमानं दधीचिमपश्यन् । ते ऋषीन् दधीचिं च दृष्ट्वा अनमन्। दधीचि: इन्द्रं- ‘‘किमर्थं यूयमत्रागता:’’ इत्यपृच्छत् । इन्द्र: सादरमकथयत् – ‘‘महर्षे, वयं वृत्रेण पीड़िता: त्वां शरणमुपागता:। कृपया त्वमस्मभ्यं स्वानि अस्थीनि प्रयच्छ। घटयाम तै: अस्थिभि: आयुधम्, येन वयं वृत्रं हन्तुं पारयाम:।’’ दधीचि: इन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा नितरामतुष्यत् । स: अकथयत् – ‘‘भो: इन्द्र! अद्य मम जीवितं सफलं जातं यत् मे शरीरं युष्माकमुपकाराय भवति। परोपकारार्थमिदं शरीरम् । अहं युष्मभ्यमिदं शरीरं सहर्षं प्रयच्छामि, स्वीकुरुत।’’ स: नेत्रे निमील्य समाधिस्थ: अभवत् । देवा: तस्य अस्थीनि आदाय तै: वङ्काायुधमरचयन् । तेन च इन्द्र: युद्धे वृत्रासुरममारयत् । एवं देवा: दधीचे: औदार्येण वृत्रभयात् मुक्ता : अभवन्।
पुरा वृत्रासुर: देवान् भृशमपीडयत्। इन्द्रादय: ते देवा: प्रजापतिमुपागच्छन्। तान् समागतान् दृष्ट्वा प्रजापति: आगमनस्य कारणमपृच्छत् । ते प्रत्यवदन् – ‘‘प्रभो! वृत्रासुर: अस्मान् पीडयति। तस्य शक्त्ते: पुरत: वयं स्थातुं न शक्नुम:। अत: भीता: वयमत्रागता:। प्रजापते अभणत् – ‘‘हरि: एव अस्मान् रक्षितुं समर्थ:। तमेव शरणं गच्छाम:।’’ प्रजापति: देवै: साकं वैकुण्ठं गत्वा हरये सर्वमपि वृत्तान्तं न्यवेदयत् । तत् श्रुत्वा हरि: अकथयत् – ‘‘भो: प्रजापति! देवा: महर्षे: दधीचे: अन्तिकं गत्वा तस्मात् अस्थियाचनं कुर्वन्तु। स: नूनमस्थीनि दास्यति। तै: अस्थिभि: वङ्काायुधं घटयत। तेन वृत्रं हन्तु युद्धे असुरान् जेतुं च पारयिष्यथ।’’ देवा: दधीचे: आश्रमं प्राविशन्। तत्र ते अनेकै: ऋषिभि: परिवृतमग्निमिव प्रभया देदीप्यमानं दधीचिमपश्यन् । ते ऋषीन् दधीचिं च दृष्ट्वा अनमन्। दधीचि: इन्द्रं- ‘‘किमर्थं यूयमत्रागता:’’ इत्यपृच्छत् । इन्द्र: सादरमकथयत् – ‘‘महर्षे, वयं वृत्रेण पीड़िता: त्वां शरणमुपागता:। कृपया त्वमस्मभ्यं स्वानि अस्थीनि प्रयच्छ। घटयाम तै: अस्थिभि: आयुधम्, येन वयं वृत्रं हन्तुं पारयाम:।’’ दधीचि: इन्द्रस्य वचनं श्रुत्वा नितरामतुष्यत् । स: अकथयत् – ‘‘भो: इन्द्र! अद्य मम जीवितं सफलं जातं यत् मे शरीरं युष्माकमुपकाराय भवति। परोपकारार्थमिदं शरीरम् । अहं युष्मभ्यमिदं शरीरं सहर्षं प्रयच्छामि, स्वीकुरुत।’’ स: नेत्रे निमील्य समाधिस्थ: अभवत् । देवा: तस्य अस्थीनि आदाय तै: वङ्काायुधमरचयन् । तेन च इन्द्र: युद्धे वृत्रासुरममारयत् । एवं देवा: दधीचे: औदार्येण वृत्रभयात् मुक्ता : अभवन्।
गद्यांश का अर्थ हिन्दी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
अतीत में वृत्रासुर ने देवताओं को बुरी तरह सताया था इन्द्र के नेतृत्व में वे देवता सृष्टिकर्ता के पास पहुँचे। उन्हें एकत्रित देखकर विधाता ने उनके आने का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया, “प्रभु! वृत्रासुर हमें सता रहा है। हम उस शक्ति के आगे टिक नहीं सकते। इसलिए हम डरकर यहां आ गए। विधाता ने कहा, “केवल हरि ही हमारी रक्षा करने में सक्षम हैं। आइए हम उनकी शरण लें।
विधाता देवताओं के साथ वैकुंठ गए और हरि को सारी कहानी सुनाई। यह सुनकर हरि ने कहा, “हे प्रजापति! देवता महान ऋषि दधीचि के पास जाएँ और उनसे अस्थियाँ माँगें वह मुझे हड्डियाँ अवश्य देगा। उन अस्थियों से वज्र का अस्त्र बनाओ। इससे तुम वृत्र का वध कर सकोगे और दैत्यों को युद्ध में परास्त कर सकोगे।” तब सभी देवता दधीचि के तपस्वी वन में चले गए। वह तपस्वी वन वानरों के खेल, हिरणों के विचरण और गलियों के गुंजन से रमणीय था। वहां अनेक ऋषि तपस्या कर रहे थे।
देवताओं ने दधीचि के आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने दधीचि को देखा, जो कई ऋषियों से घिरे हुए थे, जो आग की तरह चमक रहे थे। उन्होंने ऋषियों और दधीचि को देखा और प्रणाम किया। दधीचि ने इंद्र से पूछा, “तुम यहाँ क्यों आए हो?” इंद्र ने आदरपूर्वक कहा, “महर्षि, हम वृत्र से पीड़ित होकर आपकी शरण में आए हैं। कृपया हमें अपनी हड्डियाँ दें। आइए हम उन हड्डियों से हथियार बनाएं ताकि हम वृत्रा को मार सकें। इंद्र की बातें सुनकर दधीचि बहुत प्रसन्न हु। उन्होंने कहा, ” इंद्र!आज मेरा जीवन इसी में पूरा हो गया है कि मेरा शरीर आपके हित के लिए है। यह शरीर दूसरों के हित के लिए है। मैं तुम्हें यह शरीर सहर्ष देता हूँ, इसे स्वीकार करो। उसने अपनी आँखें पोंछीं और समाधि की स्थिति में गिर गया। देवताओं ने उसकी हड्डियाँ लीं और उनसे वज्र बनाए। और इसके साथ ही इंद्र ने युद्ध में वृत्रासुर का वध कर दिया। इस प्रकार दधीचि की उदारता से देवता वृत्र के भय से मुक्त हो गए।
विधाता देवताओं के साथ वैकुंठ गए और हरि को सारी कहानी सुनाई। यह सुनकर हरि ने कहा, “हे प्रजापति! देवता महान ऋषि दधीचि के पास जाएँ और उनसे अस्थियाँ माँगें वह मुझे हड्डियाँ अवश्य देगा। उन अस्थियों से वज्र का अस्त्र बनाओ। इससे तुम वृत्र का वध कर सकोगे और दैत्यों को युद्ध में परास्त कर सकोगे।” तब सभी देवता दधीचि के तपस्वी वन में चले गए। वह तपस्वी वन वानरों के खेल, हिरणों के विचरण और गलियों के गुंजन से रमणीय था। वहां अनेक ऋषि तपस्या कर रहे थे।
देवताओं ने दधीचि के आश्रम में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने दधीचि को देखा, जो कई ऋषियों से घिरे हुए थे, जो आग की तरह चमक रहे थे। उन्होंने ऋषियों और दधीचि को देखा और प्रणाम किया। दधीचि ने इंद्र से पूछा, “तुम यहाँ क्यों आए हो?” इंद्र ने आदरपूर्वक कहा, “महर्षि, हम वृत्र से पीड़ित होकर आपकी शरण में आए हैं। कृपया हमें अपनी हड्डियाँ दें। आइए हम उन हड्डियों से हथियार बनाएं ताकि हम वृत्रा को मार सकें। इंद्र की बातें सुनकर दधीचि बहुत प्रसन्न हु। उन्होंने कहा, ” इंद्र!आज मेरा जीवन इसी में पूरा हो गया है कि मेरा शरीर आपके हित के लिए है। यह शरीर दूसरों के हित के लिए है। मैं तुम्हें यह शरीर सहर्ष देता हूँ, इसे स्वीकार करो। उसने अपनी आँखें पोंछीं और समाधि की स्थिति में गिर गया। देवताओं ने उसकी हड्डियाँ लीं और उनसे वज्र बनाए। और इसके साथ ही इंद्र ने युद्ध में वृत्रासुर का वध कर दिया। इस प्रकार दधीचि की उदारता से देवता वृत्र के भय से मुक्त हो गए।
121. प्रजापति: देवानां कथं सहायताम् अकरोत् ?
1. प्रजापति: देवै: सह मिलित्वा असुरान् अहनत्।
2. प्रजापति: देवेभ्य: विजययज्ञम् अकरोत्।
3. प्रजापति: देवै: सह वैकुण्ठं गत्वा हरये देवानां कष्टं न्यवेदयत्
4. प्रजापति: देवान् हरिं गन्तुं प्रैरयत्।
Click To Show Answer
Answer – (3)
प्रजापति देवताओं के साथ बैकुण्ठ में जाकर हरि (विष्णु) से देवताओं के कष्ट का निवेदन करके उनकी सहायता की।
डुकृञ् करणे, कृ (करना) लङ् लकार
एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथम पुरुष अकरोत् अकुरुताम् अकुर्वन्
मध्यम पुरुष अकरो: अकुरुतम् अकुरुत
उत्तम पुरुष अकरवम् अकुर्व अकुर्म
प्रजापति देवताओं के साथ बैकुण्ठ में जाकर हरि (विष्णु) से देवताओं के कष्ट का निवेदन करके उनकी सहायता की।
डुकृञ् करणे, कृ (करना) लङ् लकार
एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथम पुरुष अकरोत् अकुरुताम् अकुर्वन्
मध्यम पुरुष अकरो: अकुरुतम् अकुरुत
उत्तम पुरुष अकरवम् अकुर्व अकुर्म