गद्यांश पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करेंगद्यांश छुपाने के लिए यहाँ क्लिक करें
निम्नलिखितं गद्यांशं पठित्वा सप्तप्रश्नानां समुचितं विकल्पं चित्वा प्रश्नानाम् उत्तराणि दातव्यानि।
गङ्गाम् उभयत: विविधै: वृक्षै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन् । तत्र एकस्मात् ग्रामात् बहि: वृक्षस्य अध: एक: जीर्ण: कूप: आसीत् । तस्मिन् कूपे मण्डूकानाम् अधिपति: गङ्गदत्त: परिजनै: सह निवसति स्म। स: गङ्गदत्त: परिश्रमं विनैव प्रभुत्वं प्राप्नोत् । अत: गर्वित: अभवत् । तस्य दुव्र्यवहारेण केचित् प्रमुखा: भेका: रुष्टा: जाता:। ते गङ्गदत्तम् अधिकारेण हीनं कृत्वा कूपात् बहि: कर्तुम् उद्यता: अभवन् । तद् ज्ञात्वा गङ्गदत्त: विषादम् अनुभवति स्म। ‘शत्रुणां नाश: कथं भवेत्’ इति एकान्ते चाटुकारै: सह मन्त्राणम् अकरोत्। एक: नष्टबुद्धिनाम मण्डूक: नत्वा अकथयत् -‘नीतिं विना किमपि न सिध्यति। शत्रु: शत्रुणा नाशयितव्य: इति नीति:। एषां शत्रूणां नाशाय सर्प: सहायक: भविष्यति। य: वृक्षस्य कोटरे निवसति। एवं संघर्षं विनैव शत्रुनाश: भविष्यति।’
तत: मूढ: गङ्गदत्त: कूपात् बहि: आगत्य सर्पस्य समीपं गत:। स सर्पं सादरम् उच्चै: अवदत् – ‘नागराजाय नम:।’ विषधर: अवदत् – ‘स्वागतम् सखे! किं ते प्रियं करवाणि। किमर्थं आगत: असि?’ गङ्गदत्त: अवदत् ‘त्वया सह मैत्रीं कर्तुं तव द्वारम् उपागत:।’ सर्पराज: तम् अपृच्छत् – ‘भक्ष्यभक्षकयो: मध्ये कीदृशी मैत्री?’ गङ्गदत्त: अकथयत् – ‘सत्यम्, परम् अधुना अपनानित: अहं तव साहाय्यम् अभिलषामि।’ ‘कस्मात् ते परिभव:?’ स्वजनेभ्य:। क्व ते निवास:, वाप्यां, कूपे तडागे वा?’ ‘कूपे। आगच्छ मया सह, कूपस्य अन्त: प्रविश्य मम शत्रून् नाशय।’
तत: सर्पराज तस्य वचनं स्वीकृत्य अकथयत्- ‘अन्ध: अस्मि! मां कूपं नय।’ तदा तत्र गत्वा गङ्गदत्त: तस्मै प्रतिदिनं एकैकं मण्डूकं भोजनाय प्रयच्छति स्म। क्रमश: स सर्प: सर्वान् भेकान् अभक्षयत् अकथयत् च- ‘बुभुक्षित: अस्मि। प्रयच्छ मे अन्यत् भोजनम् ।’ गङ्गदत्त: अवदत् – ‘मार्गं देहि येन बहि: गत्वा अन्यस्मात् जलाशयात् मण्डूकान् आनयमि।’ तत: सर्प: तस्मै मार्गं दत्तवान् । गङ्गदत्त: बहि: आगत्य सोल्लासम् अवदत् – न गङ्गदत्त: पुनरेति कूपम् ।
गद्यांश का अर्थ हिन्दी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करेंगद्यांश का अर्थ हिन्दी में छुपाने के लिए यहाँ क्लिक करेंगङ्गाम् उभयत: विविधै: वृक्षै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन् । तत्र एकस्मात् ग्रामात् बहि: वृक्षस्य अध: एक: जीर्ण: कूप: आसीत् । तस्मिन् कूपे मण्डूकानाम् अधिपति: गङ्गदत्त: परिजनै: सह निवसति स्म। स: गङ्गदत्त: परिश्रमं विनैव प्रभुत्वं प्राप्नोत् । अत: गर्वित: अभवत् । तस्य दुव्र्यवहारेण केचित् प्रमुखा: भेका: रुष्टा: जाता:। ते गङ्गदत्तम् अधिकारेण हीनं कृत्वा कूपात् बहि: कर्तुम् उद्यता: अभवन् । तद् ज्ञात्वा गङ्गदत्त: विषादम् अनुभवति स्म। ‘शत्रुणां नाश: कथं भवेत्’ इति एकान्ते चाटुकारै: सह मन्त्राणम् अकरोत्। एक: नष्टबुद्धिनाम मण्डूक: नत्वा अकथयत् -‘नीतिं विना किमपि न सिध्यति। शत्रु: शत्रुणा नाशयितव्य: इति नीति:। एषां शत्रूणां नाशाय सर्प: सहायक: भविष्यति। य: वृक्षस्य कोटरे निवसति। एवं संघर्षं विनैव शत्रुनाश: भविष्यति।’
तत: मूढ: गङ्गदत्त: कूपात् बहि: आगत्य सर्पस्य समीपं गत:। स सर्पं सादरम् उच्चै: अवदत् – ‘नागराजाय नम:।’ विषधर: अवदत् – ‘स्वागतम् सखे! किं ते प्रियं करवाणि। किमर्थं आगत: असि?’ गङ्गदत्त: अवदत् ‘त्वया सह मैत्रीं कर्तुं तव द्वारम् उपागत:।’ सर्पराज: तम् अपृच्छत् – ‘भक्ष्यभक्षकयो: मध्ये कीदृशी मैत्री?’ गङ्गदत्त: अकथयत् – ‘सत्यम्, परम् अधुना अपनानित: अहं तव साहाय्यम् अभिलषामि।’ ‘कस्मात् ते परिभव:?’ स्वजनेभ्य:। क्व ते निवास:, वाप्यां, कूपे तडागे वा?’ ‘कूपे। आगच्छ मया सह, कूपस्य अन्त: प्रविश्य मम शत्रून् नाशय।’
तत: सर्पराज तस्य वचनं स्वीकृत्य अकथयत्- ‘अन्ध: अस्मि! मां कूपं नय।’ तदा तत्र गत्वा गङ्गदत्त: तस्मै प्रतिदिनं एकैकं मण्डूकं भोजनाय प्रयच्छति स्म। क्रमश: स सर्प: सर्वान् भेकान् अभक्षयत् अकथयत् च- ‘बुभुक्षित: अस्मि। प्रयच्छ मे अन्यत् भोजनम् ।’ गङ्गदत्त: अवदत् – ‘मार्गं देहि येन बहि: गत्वा अन्यस्मात् जलाशयात् मण्डूकान् आनयमि।’ तत: सर्प: तस्मै मार्गं दत्तवान् । गङ्गदत्त: बहि: आगत्य सोल्लासम् अवदत् – न गङ्गदत्त: पुनरेति कूपम् ।
गंगा के दोनों किनारों पर विभिन्न वृक्षों से सुशोभित गाँव थे। एक गांव के बाहर एक पेड़ के नीचे एक जर्जर कुआं था। उस कुएँ में मेंढकों के स्वामी गंगादत्त अपने सम्बन्धियों के साथ रहते थे गंगादत्त ने बिना किसी प्रयत्न के ही अपना प्रभुत्व प्राप्त कर लिया। तो वह गौरवान्वित हो गया। उसके इस दुर्व्यवहार से कुछ प्रमुख मेंढक नाराज हो गए उन्होंने गंगादत्त को उसके अधिकार से वंचित कर दिया और उसे कुएँ से बाहर निकालने का प्रयास किया यह जानकर गंगादत्त उदास हो गया ‘दुश्मनों को कैसे नष्ट किया जा सकता है?’ उसने चापलूसी करने वालों से अकेले में सलाह ली। नष्टबुद्धि नाम के मेंढक ने झुककर कहा, ‘नीति के बिना कोई काम नहीं होता। नीति यह है कि शत्रु का नाश शत्रु से होना चाहिए। सर्प इन शत्रुओं को नष्ट करने में सहायता करेगा। जो पेड़ की कोटर में रहता है। इस प्रकार बिना संघर्ष के ही शत्रु का नाश हो जाएगा।
तब मूर्ख गंगादत्त कुएँ से निकलकर साँप के पास गया उसने सर्प से आदरपूर्ण स्वर में कहा, ‘ॐ नागराजय नमः।’ विष देने वाले ने कहा, ‘स्वागत है मित्र! मैं आपको खुश करने के लिए क्या कर सकता हूं? तुम क्यों आए हो?’ गंगादत्त ने कहा, ‘मैं तुमसे मित्रता करने तुम्हारे द्वार आया हूं।’ सर्पों के राजा ने उससे पूछा, ‘खाने वालों में कैसी मित्रता है?
गंगादत्त ने कहा, ‘सच है, लेकिन अब जब मैं लाया गया हूं, तो मैं आपकी सहायता चाहता हूं।’ ‘तुम्हें तुम्हारे रिश्तेदार ने क्यों सताया है?’ तेरा निवास कहाँ है: कुँए में या तालाब में?’ ‘कुएँ में। मेरे साथ आओ, कुएँ में प्रवेश करो और मेरे शत्रुओं का नाश करो।
तब नागराज ने उनकी बात मान ली और कहा, ‘मैं अंधा हूं! मुझे कुएँ तक ले चलो।’ तब गंगादत्त वहाँ गया और उसे प्रतिदिन एक मेंढक भोजन के लिए दिया धीरे-धीरे साँप सारे मेंढकों को खा गया और बोला, ‘मुझे भूख लगी है। मुझे कुछ और भोजन दो। गंगादत्त ने कहा, ‘मुझे एक रास्ता दो ताकि मैं बाहर जाकर दूसरे जलाशय से मेंढक ला सकूँ।’ तब साँप ने उसे एक रास्ता दिया। गंगादत्त ने बाहर आकर आनंद और उत्साह से कहा कि गंगादत्त कुएँ पर नहीं लौटेगा।
तब मूर्ख गंगादत्त कुएँ से निकलकर साँप के पास गया उसने सर्प से आदरपूर्ण स्वर में कहा, ‘ॐ नागराजय नमः।’ विष देने वाले ने कहा, ‘स्वागत है मित्र! मैं आपको खुश करने के लिए क्या कर सकता हूं? तुम क्यों आए हो?’ गंगादत्त ने कहा, ‘मैं तुमसे मित्रता करने तुम्हारे द्वार आया हूं।’ सर्पों के राजा ने उससे पूछा, ‘खाने वालों में कैसी मित्रता है?
गंगादत्त ने कहा, ‘सच है, लेकिन अब जब मैं लाया गया हूं, तो मैं आपकी सहायता चाहता हूं।’ ‘तुम्हें तुम्हारे रिश्तेदार ने क्यों सताया है?’ तेरा निवास कहाँ है: कुँए में या तालाब में?’ ‘कुएँ में। मेरे साथ आओ, कुएँ में प्रवेश करो और मेरे शत्रुओं का नाश करो।
तब नागराज ने उनकी बात मान ली और कहा, ‘मैं अंधा हूं! मुझे कुएँ तक ले चलो।’ तब गंगादत्त वहाँ गया और उसे प्रतिदिन एक मेंढक भोजन के लिए दिया धीरे-धीरे साँप सारे मेंढकों को खा गया और बोला, ‘मुझे भूख लगी है। मुझे कुछ और भोजन दो। गंगादत्त ने कहा, ‘मुझे एक रास्ता दो ताकि मैं बाहर जाकर दूसरे जलाशय से मेंढक ला सकूँ।’ तब साँप ने उसे एक रास्ता दिया। गंगादत्त ने बाहर आकर आनंद और उत्साह से कहा कि गंगादत्त कुएँ पर नहीं लौटेगा।
129. गङ्गाम् उभयत: कीदृशा: ग्रामा: आसन् ?
1. गङ्गाम् उभयत: जनसंकुला: ग्रामा: आसन्।
2. गङ्गाम् उभयत: द्रुमै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन्।
3. गङ्गाम् उभयत: लताभि: सुशोभिता: ग्रामा: आसन्।
4. गङ्गाम् उभयत: कूपै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन्।
Click To Show AnswerClick To Hide Answer
Answer – (2)
गङ्गा के दोनों ओर वृक्षों से सुशोभित गाँव थे। वार्तिक- उभसर्वतसो: कार्याधिगुपर्यादिषु त्रिषु। द्वितीयाम्रेडितान्तेषु ततोन्यत्रापि दृश्यते।। उभयत: कृष्णं गोपा:। सर्वत: कृष्णम् । धिक कृष्णभक्तम्। उपर्युपरि लोकं हरि:। अध्यधि लोकम्। अधोऽधो लोकम्। जब उभ और सर्व शब्द से परे ‘तस्’ प्रत्यय होता है तो उसके योग में द्वितीया विभक्ति होती है। धिक शब्द के योग मे द्वितीया होती है। उपरि, अधि तथा अध: की आम्रेडित संज्ञा होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है। उदाहरण- गङ्गाम् उभयत: द्रुमै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन् में उभयत: के प्रयोग के कारण वार्तिक सूत्र-‘उभसर्वतसो….’ से गङ्गाम् में द्वितीया विभक्ति हुई है।
गङ्गा के दोनों ओर वृक्षों से सुशोभित गाँव थे। वार्तिक- उभसर्वतसो: कार्याधिगुपर्यादिषु त्रिषु। द्वितीयाम्रेडितान्तेषु ततोन्यत्रापि दृश्यते।। उभयत: कृष्णं गोपा:। सर्वत: कृष्णम् । धिक कृष्णभक्तम्। उपर्युपरि लोकं हरि:। अध्यधि लोकम्। अधोऽधो लोकम्। जब उभ और सर्व शब्द से परे ‘तस्’ प्रत्यय होता है तो उसके योग में द्वितीया विभक्ति होती है। धिक शब्द के योग मे द्वितीया होती है। उपरि, अधि तथा अध: की आम्रेडित संज्ञा होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है। उदाहरण- गङ्गाम् उभयत: द्रुमै: सुशोभिता: ग्रामा: आसन् में उभयत: के प्रयोग के कारण वार्तिक सूत्र-‘उभसर्वतसो….’ से गङ्गाम् में द्वितीया विभक्ति हुई है।